आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ र्ष पर देश के मज़दरूों के लिए आज़ादी के बाद लगभग पहली बार कई ज़रूरी श्रम क़ाननू जसै े, इंडस्ट्रीयल डिस्प्यट्ूस अधिनियम (1947), फ़ैक्ट्रीज़ अधिनियम (1948), आदि का सरुक्षा कवच उपलब्ध नहीं होगा। इनमें सेकुछ क़ाननू तो भारत की आज़ादी के साथ लाए गए थेऔर मलू रूप सेइनका उद्देश्य मज़दरूों के अधिकारों और आज़ादी को सनिु श्चित करना था। 2019-20 मेंइन सभी क़ाननू ों को हटाकर चार नई संहिताएँलाईं गईं – (1) मज़दरूी संहिता, (2) औद्योगिक सम्बंध संहिता, (3) सामाजिक सरुक्षा संहिता, (4) व्यवसायगत सरुक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थितियांसंहिता.
पीयडीआर ू इस मौक़े पर अपनी रिपोर्ट “ऐंटी-लेबर कोड्ज़” (मज़दरू-विरोधी संहिताएँ) जारी कर रहा है। येरिपोर्ट इस बात को चिन्हित करती हैकि कैसेयेनए श्रम क़ाननू , श्रमिकों को उनके अधिकारों सेवंचित कर देतेहैं। इस रिपोर्ट मेंचारों संहिताओं के प्रावधानों को समझाया गया हैऔर मज़दरूों के अधिकारों पर इन प्रावधानों के असर पर चर्चाकी गई है। मौजदा ू क़ाननी ू प्रावधानों के ग़ैर-अनपालन ु और सरकार की मौजदा ू “ईज़ ओफ़ डूइंग बिज़्नेस” नीति के परिप्रेक्ष्य मेंचारों संहिताओंकी समीक्षा की गई है.
यह रिपोर्ट इस बात को उजागर करती हैकि इन संहिताओंके औपचारिक रूप सेअमल मेंलाए जानेसेपहलेही, इनके कई प्रावधान व्यवहारिक रूप सेसरकार द्वारा वार्षिकर्षि “बिज़्नेस रेफ़ॉर्म्ज़ ऐक्शन प्लान” के रूप मेंलागू किए जा रहेथे। पिछलेकरीब छः वर्षों मेंपीयडीआर ू के द्वारा किए गए तथ्यान्वेषण में, और मीडिया व अन्य रेपोर्टों के माध्यम सेभी अलग-अलग औद्योगिक क्षेत्रों मेंमज़दरूों की बिगड़ती परिस्थितियों का पता चला है। जसै े, काम के बढ़तेघंटे, काम सेनिकालेजानेका डर और काम की अनिश्चितता, ठेका प्रथा, घटतेवेतन, जबरन ओवरटाइम, सरुक्षा उपकरणों और प्रावधानों का न होना, और कार्यस्र्य थल दर्घु टनाए र्घ ँऔर मौत। मज़दरूों की इस दर्गु तिर्ग को श्रम विभाग और पलिु स नेश्रम क़ाननू ों के ग़ैर-अनपालन ु सेऔर बदतर कर दिया। कोविड-19 मेंइन्हें इस ग़ैर-अनपालन ु का एक और बहाना मिला। मजदरूों की बिगड़ती परिस्थितियों के बावजदू , केंद्रीय और राज्य सरकारों ने2020-2021 मेंकोविड-19 के नाम पर कुछ ऐसेआदेश पारित किए जिन्होंनेआशिं क या पर्णू र्णरूप से मज़दरूों के अधिकारों को स्थगित कर दिया। इन सब के बीच, सितंबर 2020 मेंसंसद मेंतीन श्रम संहिताएँसभी प्रणालियों को दरकीनार करतेहुए बिना किसी बहस-चितनं के पारित कर दी गई (एक संहिता 2019 मेंही धकेल के पारित किया गया था)।
इन चार संहिताओं के प्रावधानों को और इनके असर को उपरलिखित संदर्भ मेंही समझा जाना चाहिए। इन संहिताओं का एक दसर ू ेके साथ क्रियाँवन देखना भी अनिवार्य है। पीयडीआर ू की रिपोर्ट इस बात का खलासा ु करती हैकि कैसेयेसंहिताएँअपनेआप मेंऔर साथ-साथ, “ईज़ ओफ़ डूइंग बिज़्नेस” नीति का प्रचार करती हैं और मज़दरूों के हितों के ख़िलाफ़ काम करतेहुए उनकी परिस्थितियों को और बदतर कर देती हैं(देखेंतालिका 2 – Cumulative Impact of Labour Codes 2019-20) । यह रिपोर्ट निम्नलिखित मद्ुदों पर बात रखती है –
(1) संहिताओं द्वारा सरकारों को बड़ेपमान ै ेपर ऐसी शक्तियाँदी गई हैंजिससेवेमहत्वपर्णू र्णमामलों, जसै े, मज़दरूों के वेतन, सरुक्षा नियम, “ख़तरनाक कार्य”र्य की परिभाषा आदि, पर फ़ैसले ले सकते हैं। इन शक्तियों द्वारा क़ाननू ों को इस प्रकार लचीला बना दिया गया है, जिसके चलतेमज़दरूों को उनके अधिकारों सेवंचित किया जा सकता है.
(2) प्रबंधन या मालिकों की जवाबदेही को कम कर दिया गया है, ख़ास तौर पर सरुक्षा नियमों के मामलेमें। कई उद्योगों मेंमालिकों को मज़दरूों के प्रति ज़रूरी दायित्वों का पालन करनेमेंभी छूट देदी गई है।
(3) मालिकों को जवाबदेह बनानेवालेप्रावधानों को कमजोर कर दिया गया है। जसै े, लेबर इन्स्पेक्टर को अब “इन्स्पेक्टर-कम-फ़सिलिटेटर” बलाया ु जाएगा और येव्यापार के क्रियाँवन मेंमदद करेंगे। अब इनके पास पहलेकी तरह अर्ध-र्धन्यायिक शक्तियाँनहीं होंगी। अब फ़ैक्टरी जाकर मआयन ु ेनहीं होंगेबल्कि मालिक ऑनलाइन खदु ही नियमों के अनपालन ु को प्रमाणित करेंगे और मालिकों को मज़दरूों के अधिकारों के उल्लंघन करनेकी छूट मिल जाएगी।
(4) अब औद्योगिक विवादों को मौजदा ू दीवानी न्यायालयों के समक्ष दायर नहींजा सकेगा। अब इन मामलों के लिए ट्रायब्यनलू का गठन किया गया है, जिनमेंएक प्रशासनिक और एक न्यायिक पद होगा. इससे सरकार का न्यायिक प्रणालियों मेंभी दख़ल बढ़ेगा।
(5) मज़दरूों के यनिू यन बनानेके अधिकारों को काफ़ी सीमित कर दिया गया है। यह और कुछ नहीं, बल्कि मालिकों द्वारा क़ाननू ों के उल्लंघन के ख़िलाफ़, मज़दरूों की सामहिू क कार्यवाह र्य ी करनेकी क्षमता पर प्रहार है।
(6) गिग मज़दरूों को सरुक्षा प्रदान करनेका केवल दिखावा किया गया है, क्योंकि इन प्रावधानों को अमल में लाने के कोई प्रावधान ही नहीं हैंऔर इस संदर्भ में मालिकों के दायित्व भी कम कर दिए गए हैं। अधिकतर मालिक यह कहकर अपनेपल्ला झाड़ सकतेहैंकी गिग मज़दरू स्वतंत्र ठेके पर कार्यरतर्य हैं, और वेमज़दरू हैंही नहीं।
येचार संहिताएँउद्योगों मेंमौजदा ू ग़ैर-अनपालन ु की वास्तविकता को एक औपचारिक ढाँचेमेंरचनेका काम करती हैंऔर मज़दरूों को सभी अधिकारों से वंचित करती हैं। परानु ेक़ाननू ों मेंलिखेअधिकारों को लचीला बनाकर या परूी तरह हटाकर, न्यायालयों और अन्य संस्थानों तक मज़दरूों की पहुँच को सीमित कर, और यनिू यन बनानेके अधिकारों को कुचल कर, मज़दरूों द्वारा उनके प्रति किए जा रहेउल्लंघनों को चनौती ु देनेके सभी माध्यमों को निरस्त करनेका प्रयास किया जा रहा है। अगर “ईज़ ओफ़ डूइंग बिज़्नेस” के नाम पर लाई गई येसंहिताएँकेवल मज़दरूों के मौलिक-लोकतांत्रिक अधिकारों को ख़त्म करके ही लाई जा सकती हैं, तो यह हर नागरिक के लिए चिता ं का विषय है.
राधिका चितकरा, विकास कुमार सचिव,
पीयडीआर ू (www.pudr.org)