न्यूज़लेटर | वॉल्यूम 2 | नंबर 2 | जुलाई 2022
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सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम या अफस्पा
दिनांक 31 मार्च को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने “नागालैंड, असम और मणिपुर राज्यों में सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ़्स्पा) के तहत “नागालैंड, असम और मणिपुर राज्यों में अशांत क्षेत्रों की संख्या घटाने की सरकार की मंशा की घोषणा की। नतीजतन, कई दशकों बाद, इन तीनों राज्यों के कुछ क्षेत्रों को सेना के वास्तविक नियंत्रण से हटा लिया गया।
उसी रोज़ (मणिपुर और असम में) और 1 अप्रैल को (नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में) ताजा अधिसूचनाएं जारी की गईं। अफस्पा के तहत अशांत घोषित किए गए क्षेत्र को इस अधिसूचना के ज़रिए असम के 23 जिलों से पूरी तरह; नागालैंड के सात जिलों; तथा, मणिपुर के छह जिलों और असम के एक जिले से आंशिक रूप से अफ़्स्पा हटा लिया गया। जबकि अरुणाचल प्रदेश की स्थिति में कोई बदलाव नहीं किया गया, जहाँ तीन जिलों और दो पुलिस थानों के तहत ‘अशांत क्षेत्र’ का दर्जा जारी है। वहीं दूसरी तरफ़ अफ़्स्पा पूरे कश्मीर इलाक़े में बिना फेरबदल के बदस्तूर जारी है।
31 मार्च का यह फ़ैसला, इन तीन राज्यों के कुछ एक हिस्सों में नागरिक शासन की प्रधानता को बहाल करेगा, जहाँ कई पीढ़ियाँ बंदूक के साये में पली-बढ़ी हैं। लेकिन अशांत क्षेत्रों को शांत घोषित किया जाना ही पर्याप्त नहीं है। पीयूडीआर एक लंबे समय से अन्याय के शिकार नागरिकों के लिए इंसाफ़ की माँग करता आ रहा है। हालांकि, चुनावी रैलियों के दौरान किए गए वायदों के बावजूद, अफस्पा के तहत आने वाले क्षेत्रों में और कमी लाने के अलावा, इस कठोर क़ानून को पूरी तरह से ख़ारिज करने की माँग पर विचार करने के लिए; या, इसकी आड़ में की गई हत्याओं और यातनाओं के सैकड़ों मामलों में मुक़दमों की मंजूरी के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है।
मणिपुर में पीड़ितों ने दशकों तक क़ानूनी संघर्ष किया। दिनांक 12 मई को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से मणिपुर में हुई हत्याओं की जाँच के संबंध में एक स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने को कहा। जैसा कि पिछले न्यूज़लेटर में चर्चा की गई थी, ‘एक्स्ट्रा ज्यूडिसियल एक्ज़ीक्यूशन विक्टिम फ़ैमिलीज़ एसोसिएशन’ ने 2012 में एक याचिका दायर कर 1,528 मामलों की जाँच की माँग की थी। वर्ष 2017 में, अदालत द्वारा नियुक्त एक समिति द्वारा इन मामलों में प्रारंभिक जाँच का निर्देश दिया गया था। इनमे से अब तक, 39 मामलों की जाँच की जा चुकी है।
एसआईटी (विशेष जाँच दल) द्वारा अपनी जाँच के बाद दायर आरोपपत्र में दोषी होने के पुख्ता सबूतों के बावजूद ओटिंग, नागालैंड में हुई हत्याओं में अभियोजन के लिए कोई मंजूरी नहीं दी गई है। राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एसआईटी के आरोपों में हत्या, आपराधिक साजिश और सबूतों के गायब होने जैसे आरोप शामिल हैं। दिनांक 30 मई को सेना के जवानों के खिलाफ दायर चार्जशीट में एक मेजर और नौ पैरादूपर्स समेत 30 जवानों के नाम भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी/302/307/326/201/34 के तहत आरोप दर्ज हैं। प्रारंभिक रिपोर्टों में एसआईटी के हवाले से निष्कर्ष निकाला गया कि “ऑपरेशन टीम ने मानक संचालन प्रक्रिया के नियमों का पालन नहीं किया और आवश्यकता से अधिक अंधाधुंध गोलीबारी का सहारा लिया था। पीयूडीआर ने एसआईटी के निष्कर्षों को सार्वजनिक करने की माँग की है। एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार एसआईटी जाँच ने पाया कि: “नागालैंड के तिरु-ओटिंग क्षेत्र में एक सेना प्रमुख रैंक के टीम कमांडर – जिन्होंने 4 दिसंबर, 2021 ऑपरेशन का नेतृत्व किया – को पता था कि उनकी टीम द्वारा लगाया गया घात गलत रास्ते पर था। हालांकि, उक्त अधिकारी ने कथित तौर पर इस महत्वपूर्ण जानकारी को “जानबूझकर दबाया” और 21 पैरा स्पेशल फोर्स की अल्फा टीम के 30 सैनिकों को गलत दिशा में भेज किया। इसके बाद उन्होंने अपनी टीम को नागालैंड के मोन जिले में एक ऑपरेशन करने का आदेश दिया, जिसमें छह नागरिकों की जान चली गई और दो अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए।
राज्य सरकार के अनुरोध के बावजूद, जो अप्रैल की शुरुआत में किया गया था और मई में जिसे फिर याद दिलाया गया तथा एसआईटी के निष्कर्ष के बावजूद, केंद्र सरकार ने अभी तक ओटिंग मामले में मुकदमा चलाने की अनुमति का जवाब नहीं दिया है। ओटिंग हत्याओं पर व्यापक आक्रोश के कारण ही पूर्वोत्तर के कई क्षेत्रों में अफस्पा की समीक्षा की माँग को बल मिला और विडंबना है कि ओटिंग, नागालैंड में इस अधिनियम के अभी तक लागू रहने के कारण ही अभियोजन हेतु केंद्र की पूर्व मंजूरी क़ायम है। जैसा कि पिछले न्यूज़लेटर में चर्चा की गई थी, केंद्र ने नियमित रूप से पिछले मामलों में मुक़दमे चलाए जाने की मंजूरी से लगातार इंकार किया है।
संक्षेप में, कहा जाए तो वर्तमान मामले में भी मुक़दमा उसी भूलभुलैया में प्रवेश होता प्रतीत हो रहा है, जैसे सरकार और न्यायपालिका द्वारा आदेशित जांच के निष्कर्षों के बावजूद अफस्पा के तहत अशांत घोषित क्षेत्रों में सेना के जवानों द्वारा कथित अत्याचार के असंख्य मामलों में किसी भी प्रभावी कार्रवाई की कमी को सुनिश्चित किया है।
हैदराबाद एनकाउंटर किलिंग
दिसंबर 2019 में चार लोगों की हत्या में गठित सिरपुरकर जाँच आयोग के निष्कर्ष के मुताबिक़, 10 दोषी पुलिसकर्मियों पर अभियोग लगाया गया। इसके अलावा, इसके फर्जी मुठभेड़ होने और लीपा-पोती करने का भी ख़ुलासा हुआ। एक ‘एनकाउंटर’ की जाँच के लिए, जिसके परिणामस्वरूप 6 दिसंबर 2019 को चार लोगों की मौत हुई, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त किए जाने वाले अपनी तरह के इस पहले आयोग को परिस्थितियों और कथित घटना की जाँच का काम सौंपा गया। इसकी अंतिम रिपोर्ट से पता चलता है कि सभी चार मृतक – जोलू शिवा, जोलू नवीन, चिंताकुंटा चेन्नाकेशवलु और मोहम्मद आरिफ को “जानबूझकर जान से मारने के इरादे से गोली मारी गई थी”।
आयोग ने सभी 10 पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या के आरोप दायर करने की सिफारिश की और यह दर्ज किया कि मृतक पर गोली चलाने वाले तीन पुलिसकर्मी “भारतीय दंड संहिता की 76 और अपवाद 3, धारा 300 के तहत शरण नहीं ले सकते। आरोपियों की इस बात पर यक़ीन नहीं किया जाना चाहिए कि “उन्होंने समझ-बूझकर गोली चलाई थी। मृतकों के अधिकारों के लगातार उल्लंघन को सूचीबद्ध करने के अलावा, आयोग ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि पुलिस को कम से कम दो मृतकों के किशोर होने के बारे में पता था, जिनकी आयु 15 वर्ष थी।
आयोग के निष्कर्ष इस मायने में भी महत्वपूर्ण हैं कि वे मुठभेड़ हत्याओं के संदर्भ में 2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किए गए 16 सूत्रीय दिशानिर्देशों के महत्व पर जोर देते हैं। आयोग आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के 2009 के फैसले को भी याद करता है, जिसमें मुठभेड़ के आरोपी पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या के आरोप दर्ज करने के साथ-साथ, 1997 के राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एनएचआरसी) के दिशानिर्देशों को मुठभेड़ में हुई मौतों की जाँच के लिए अनिवार्य किया गया था। अदालत के फैसले 2014 के मामले में पीयूसीएल और 2009 के मामले में एपीसीएलसी सहित मानव अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा लंबे समय से किए गए संघर्ष का परिणाम थे। पीयूडीआर लंबे समय से कई रिपोर्टों और बयानों के माध्यम से मुठभेड़ में मारे गए लोगों के आरोपियों के खिलाफ अभियान चला रहा है। (यहां एपीसीएलसी के साथ संयुक्त स्थिति पत्र देखें)।
आयोग के कद और इसकी व्यापक कार्यवाही के ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए, यह ध्यान देने योग्य है कि निष्कर्ष वरिष्ठ अधिकारियों को शामिल नहीं करते हैं। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में उन वरिष्ठ अधिकारियों और राज्य के अन्य पदाधिकारियों को शामिल नहीं किया, जिनकी भूमिकाएँ बताई गई हैं। आयोग ने केवल उन लोगों को दोषी ठहराया है जो हत्या स्थल पर मौजूद थे। इस प्रकार, जिन लोगों ने दो किशोरों सहित चार युवकों की निर्मम हत्या का आदेश दिया, सहायता की और मिलीभगत की, हमेशा की तरह, साफ़ साफ़ बच निकले हैं।
राजद्रोहः
पिछले महीने में राजद्रोह कानून पर महत्वपूर्ण घटनाक्रम देखा गया, जिसके व्यापक और अंधाधुंध उपयोग की चर्चा पहले के न्यूज़लेटरों (मई 2021, अगस्त 2021 और मार्च 2022) में की गई है। दिनांक 11 मई को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक आदेश पारित किया जो भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए पर रोक लगाता है। यह आदेश केंद्र सरकार के “भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के प्रावधानों की पुनः जाँच और पुनर्विचार” के निर्णय के बाद पारित किया गया था। सनद रहे कि सरकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा एसजी वोम्बटकेरे बनाम भारतीय संघ, कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाले मामले में जारी एक नोटिस का जवाब दे रही थी।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि “भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के तहत लगाए गए आरोप के संबंध में सभी लंबित मुकदमे, अपील और कार्यवाही को रोक कर रखा जाए। अदालत “उम्मीद करती है कि राज्य और केंद्र सरकारें ऐसे किसी भी मामले में प्राथमिकी दर्ज करने, कानून के उक्त प्रावधान के विचाराधीन होने के दौरान, भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए को लागू करते हुए किसी भी तरह की जाँच जारी रखने या दंडात्मक उपाय करने से ख़ुद को रोकेंगी।”
अदालत द्वारा देशद्रोह कानून के निलंबन के अंतरिम आदेश को लेकर, पत्रकारों सहित कई कार्यकर्ताओं और क़ानूनविदों की तत्काल प्रतिक्रिया उत्सव भरी थी। हालांकि यह अवसर, संवैधानिक आधार पर देशद्रोह के क़ानून की समीक्षा करने के लिए एक चूके गए अवसर के रूप में भी देखा गया। बहरहाल अब केंद्र द्वारा कानून की समीक्षा की जाएगी, जबकि वास्तव में याचिकाकर्ताओं (कई याचिकाओं को एक साथ जोड़ दिया गया है) ने इस कानून की संवैधानिकता की न्यायिक समीक्षा की माँग की थी।
सरकार का फैसला भी उसके अपने पहले के रुख में एक त्वरित बदलाव था। मसलन, 5 मई को अटॉर्नी जनरल ने राजद्रोह कानून की वैधता को बरकरार रखने की बात कही, जबकि 7 मई को सॉलिसिटर जनरल ने एक लिखित तर्क प्रस्तुत करते हुए कानून पर पुनर्विचार ना करने की कोई आवश्यकता पर ज़ोर दिया। वहीं 9 मई को गृह मंत्रालय के एक हलफनामे के ज़रिए अदालत से “प्रावधानों की वैधता की जाँच में समय बर्बाद ना करने” की गुहार लगाई, और कानून पर पुनर्विचार करने के लिए कार्यपालिका के फ़ैसले की प्रतीक्षा करने की सलाह दी। हलफ़नामे में कहा गया कि इस काम को “केवल सक्षम मंच के समक्ष किया जा सकता है।”
हालांकि, यह मानते हुए कि कानून औपनिवेशिक प्रकृति का था, इस बदलाव ने सरकार को समीक्षा प्रक्रिया को वापस लेने की अनुमति दी है, यद्यपि सरकार ने समीक्षा के आधार पर, समीक्षा के मंच या इसमें कितना समय लगेगा, इस पर कोई स्पष्टता नहीं दी है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक संपादकीय ने राय व्यक्त की कि केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू की टिप्पणी, “अंतरिम आदेश आने के तत्काल बाद, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच ‘लक्ष्मण रेखा’; और, ना केवल संविधान बल्कि अन्य क़ानूनों के प्रति सम्मान को लेकर, न्यायालय के निर्देशों के साथ असहजता का संकेत देती है।
अगली सुनवाई की तारीख, जुलाई के तीसरे सप्ताह में होने की संभावना है।
पोर्ट्रेट
भीमा कोरेगांव मामले में बंद कार्यकर्ताओं की रिहाई के अपने अभियान के रूप में, पीयूडीआर अंग्रेजी और हिंदी में पोस्टर बनाने की प्रक्रिया में है। पोस्टर यूएपीए की क्रूरताओं को बयान करने वाले होंगे।
उन घंटियों को बजाना जारी रखो, जो अभी तक बज सकती हैं,
भूल जाओ अपनी सबसे अच्छी भेंट
दरार हर कहीं है, हर चीज में दरार है
इसी तरह रोशनी अंदर दाखिल होती है
~ लियोनार्ड कोहेन