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आज जब मैं दिल्ली में स्थित एनआइए हेडक्वॉर्टर में आत्मसमर्पण करने के लिए घर से निकलने की तैयारी में हूँ, मुझे ख़ुशी है कि जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस इंदिरा बैनर्जी ने मुझे 8 अप्रैल के अपने आदेश के द्वारा एक और हफ़्ते की आज़ादी दी। लॉकडाउन के दौर में मेरे जैसे हालात वाले किसी व्यक्ति के लिए एक हफ़्ते की आज़ादी के बहुत मायने है। उनके इस आदेश ने मेरे लिए उन परिस्थितियों को हल किया जिनके कारण मैं एनआइए, मुंबई के समक्ष 6 अप्रैल को आत्मसमर्पण नहीं कर पाया था, जिसका आदेश शीर्ष अदालत ने 16 मार्च को दिया था। लॉकडाउन के कारण मैं यात्रा नहीं कर सकता था। न ही एनआइए, मुंबई की तरफ़ से कोई निर्देश थे की मुझे इन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए। मैं जानता हूँ कि अब मुझे एनआइए हेडक्वॉर्टर, दिल्ली पर आत्म समर्पण करना है।

भारत के प्रधानमंत्री ने कोवि-19 महामारी द्वारा ढाए गए संकटों को ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ जैसा बताया है। इस बीच सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं जेलों में उपस्थित संकटपूर्ण परिस्थितियों के मामले में हस्तक्षेप करते हुए दिशानिर्देश जारी किए हैं, जिससे कि देश के खचाखच भरे जेलों में भीड़ कम हो सके, और क़ैदियों, जेल कर्मचारियों और जेल सेवाओं से जुड़े अन्य लोगों को होने वाले संकट से बचाया जा सके। यह चिंता का विषय है, पर क्योंकि अब तक जेलों से कोविड -19 के किसी भी मामले की ख़बर नहीं आई है, तो मैं थोड़ा-बहुत आश्वस्त हूँ। क्योंकि कोवि-19 के दौर में मुझे जेल भेजा जा रहा है, इसलिए मेरे क़रीबी लोगों को हो रही चिंता मुझे प्रभावित कर रही है।  ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के 8 अप्रैल के आदेश में कोवि-19 महामारी पर चुप्पी बेहद निराशाजनक है, जबकि पूरा विश्व और भारत भी इस महामारी से जूझ रहा हैं।

ख़ैर, अब मुझे भी उस क़ानूनी प्रक्रिया का सामना शुरू करना है जहां विधि-विरुद्ध गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (यू ए पी ए ) का प्रयोग किया जाता हैऐसे अधिनियम सामान्य न्यायप्रणाली को सिर के बल खड़ा कर देते हैं। इसके तहत चलाई गई कार्यवाहियों में अब यह सिद्धांत बेमानी है कि व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक वह दोषी सिद्ध न हो जाए। बल्कि इन कानूनों के तहत व्यक्ति तब तक दोषी है जब तक वह निर्दोष सिद्ध न हो जाए।‘

जहां एक तरफ़ यू ए पी ए में कड़ी सज़ा और अन्य बेरहम प्रावधान हैं, वहीं दूसरी ओर इसमें साक्ष्य (ख़ास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य) के लिए प्रावधान सख़्त होने की बजाय काफ़ी ढीले हैं। आम क़ानूनों के अंतर्गत जो साक्ष्य नियम ज़्यादा सख़्त होते है, यू ए पी ए के तहत लचीले बनाए गए हैं। इस दोहरे प्रहार के चलते, जेल ही तक़दीर बन जाता है और बेल मिलना अपवाद। ऐसी भयावह ‘काफकाई’ स्थिति में पूरी प्रक्रिया ही एक सज़ा बन जाती है।

 मेरी उम्मीद बस अब मेरे और मेरे सह-आरोपियों के लिए एक त्वरित और निष्पक्ष सुनवाई पर टिकी हुई है। केवल इसी के बल पर मैं खुद पर लगे आरोपों को ख़ारिज कर पाऊँगा और आज़ाद हो पाऊँगा। साथ ही उम्मीद है कि जेल में बिताए हुए वक्त में अपनी कुछ आदतें छोड़ पाऊँगा।

तब तक

“क्या तुम मदद नहीं करोगे

आज़ादी के गीत गाने में

कि यही तो है मेरे पास हमेशा से

मुक्ति के गीत 

मुक्ति के गीत 

ये आज़ादी के गीत.....”

(बॉब मार्ली)

 

गौतम नवलखा 

14 अप्रैल 2020, नई दिल्ली