People’s Union for Democratic Rights

A civil liberties and democratic rights organisation based in Delhi, India

पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स 1999 के शंकरबीघा जनसंहार (जहानाबाद ज़िला) के सभी दोषियों को बरी करने की तीव्र निंदा करता है 14 जनवरी2015 को बिहार के जहानाबाद ज़िले के एक ट्रायल कोर्ट द्वारा शंकरबीघा जनसंहार में शामिल रणवीर सेना के सभी दोषियों को साक्ष्य के अभाव‘ के आधार पर बरी कर दिया गया इस जनसंहार में मारे गए सभी 23 लोगों में 7 बच्चे (जिनमें एक बच्चा 10 महीने का था)5 महिलाएं और 11 पुरुष सहित सभी भूमिहीन मज़दूर और दलित एवं पिछड़ी जातियों के परिवारों के पासवानचमारदुसाध और रजवार थे | रणवीर सेना (जो 1990 के दशक के प्रारम्भ से सक्रिय है) भूमिहार जाति (आमतौर पर जो सामंत कहलाते हैं) की निजी सेना के रूप में उभरी रणवीर सेना द्वारा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या 25 जनवरी 1999 की रात को पीड़ितों पर आतंक का कहर बरपाया गया था 16 वर्षों की लम्बी अदालती लड़ाई के बाद सभी दोषियों को इस जघन्य अपराध से मुक्त कर दिया गया ! शंकरबीघा मुक़दमे का फैसला एकीकृत बिहार में 1980 और 1990 के दशकों तथा उन समयों के बाद के जातीय जनसंहारों पर दोबारा गौर करने का अवसर प्रदान करता है |

शंकरबीघा जनसंहारराजपूतों और भूमिहारों जैसी उच्च जातियों की निजी सेनाओं जैसे सनलाइट सेनासवर्ण लिबेराशन फ्रंट और रणवीर सेना के द्वारा बिहार के केन्द्रीय ज़िलों के कृषि परितंत्र में, ‘जातीय सफाए‘ की श्रृंखला का एक हिस्सा था रणवीर सेना के द्वारा किए गए 27 जनसंहार की घटनाओं में 400 बच्चेमहिलाएं एवं पुरुष मारे गए यहाँ यह बताना महत्वपूर्ण है कि बिहार में 1980 और 1990 के दशक में ये जनसंहार राजपूतों और भूमिहार ज़मींदारों द्वारासी.पी.आई.(एम्-एल)-लिबरेशनसी.पी.आई.(एम्-एल)-पार्टी यूनिटी और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के नेतृत्व में मज़दूरी और खेती के सवालों पर चलाए जा रहे जनसंघर्षों की प्रतिक्रिया में किए गए थे इन संघर्षरत गरीब लोगों मेंखासकरभूमिहीन दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग थे |

अक्टूबर 2013 में पटना उच्च न्यायालय ने रणवीर सेना के उन सभी 23 सदस्यों को बरी कर दिया जो लक्षमणपुर बाथे जनसंहार (1997) के दोषी थेजिसमें 58 दलित खेतीहर मज़दूर मारे गए थे दूसरी तरफगया ज़िले के बारा गाँव में हुए जनसंहार में आरोपित (जहां कथित तौर पर भूमिहार जाति के सदस्यों को तब के माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के मोचीपासवानदुसाध जातियों जैसे दलित और पिछड़ी जातियों के द्वारा मारा गया था) अभी तक जेल में हैं एक ही प्रकार के दो मामलों में दो अलग-अलग तरह के नतीजेसमाज के विभाजनात्मक स्वरुप और फलस्वरूप न्यायिक व्यवस्था द्वारा पक्षपात को उजागर करता है |

यह भी ध्यानयोग्य है कि शंकरबीघा का यह फैसला हाल-फिलहाल में जनसंहारों के मामलों में हुई रिहाई के फैसलों की कड़ी में पांचवां है और सारी रिहाइयां साक्ष्यों और विश्वसनीय गवाहों के अभाव के आधार पर हुई हैं बीते दो वर्षों में पटना उच्च-न्यायालय के चार फैसलों – बथानी टोला (अप्रैल 2012), नगरी बाज़ार (मार्च 2013)मियापुर (जुलाई 2013) और लक्ष्मणपुर बाथे (अक्टूबर 2013) में उच्च जाति के उन व्यक्तियों को बरी कर दिया गया जो ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी करार किये गए थे शंकरबीघा मुक़दमे में ट्रायल कोर्ट के स्तर पर ही रिहाई हो गई क्यूंकि उसके सभी 49 गवाह मुकर गए और अभियुक्तों को पहचानने से इनकार कर दिया दबंग जातियों के सामाजिक दबाव और डर को हल्के में नहीं लिया जा सकता जनसंहार को रणवीर सेना द्वारा खुलेआम स्वीकार करने के बावजूदकथित अपर्याप्त सबूतों की बात महज़ पुलिस के सबूत एकत्र करने और मुकदमा चलाने में पक्षपातपूर्ण रवैये को ही रेखांकित करता है मुक़दमों के परिणाम देखकर दलितोंपिछड़े किसानों और खेतीहर मज़दूर के बाकी जनसंहारों की तहकीकात में पुलिस के ढीलेढाले रवैये का पता चलता है |

 

बिहार में निम्न जातियों के जनसंहारों के मामलों में अविश्वसनीय गवाह और साक्ष्यों के अभाव में उच्च जातियों के लोगों की हाल में हुई रिहाई की सूची

 

जनसंहार वर्ष  

 

घटनाएं

 

मारे गए दलित भूमिहीनों की संख्या

 

उच्च जातियों के अभियुक्तों की रिहाई किस कोर्ट द्वारा

 

 रिहाई की तारीख

 

1996

 

बथानी टोला

 

20

 

पटना हाई कोर्ट

 

अप्रैल 2012

 

1997

 

लक्ष्मणपुर बाथे

 

58

 

पटना हाई कोर्ट

 

अक्टूबर 2013

 

1998

 

नगरी बाज़ार

 

10

 

पटना हाई कोर्ट

 

मार्च 2013

 

1999

 

शंकरबीघा

 

23

 

ट्रायल कोर्टजहानाबाद

 

जनवरी 2015

 

2000

 

मियापुर

 

32

 

पटना हाई कोर्ट

 

जुलाई 2013

 

न्यायपालिका का भेदभावपूर्ण रवैया उसके द्वारा क़ानूनों के चुनिन्दा उपयोग में नज़र आता है 1992 में उच्च जाति के लोगों और ज़मींदारों की हत्या के दोष में बारा जनसंहार में शामिल निम्न जातियों के दोषियों पर तुरंत टाडा थोप दिया गया | पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) क़ानून 1989 के प्रावधानों को शंकरबीघा जनसंहार मुक़दमे में अमल में नहीं लाया गया बहस की बात यह नहीं कि उन सभी जनसंहारों के मामलों में कोई विशेष क़ानून लगाए जाएँ हमारी यह समझ है कि सभी मुकदमों में विस्तृत और पक्षपात रहित जांच हो ताकि सभी को न्याय मिल सके |

शंकरबीघा मुकदमा और सम्बंधित जांच बारा जनसंहार की तुलना में यह दिखाता है कि आपराधिक न्याय व्यस्था पूर्णतः शक्तिशाली वर्गों के पक्ष में है तथा सज़ा भी मौजूदा असमान व्यवस्था को बरकरार रखते हुए दी जाती है पुलिस और न्यापालिका अपने कार्यों में उन्हीं पूर्वाग्रहों के साथ काम करते हैं और इस प्रकार वे उसी सामाजिक चरित्र को दर्शाते हैं जहां से वे आते हैं भारत में न्याय के लिए संघर्षरत जनता का इतिहास बहुत लम्बा है लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है की इस लड़ाई को साज़िशतन नियमित तौर पर अन्यायोंमुख कर दिया जाता है |

चूँकि यह मामला अदालत के समक्ष है इसलिए हम सर्वोच्च न्यायलय से अपील करते हैं कि वे इस भारी अन्याय के मामले में स्वतः संज्ञान लें और सुनिश्चित करें कि बेशक फैलसे में देरी होपर न्याय पीड़ितों के पक्ष में होऔर मुजरिम क़ानून से बचकर भाग न पाएं |

शर्मिला पुरकायस्थ और मेघा बहल
(सचिव)
pudr@pudr.org

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