बस्तर बार एसोसिएशन द्वारा पुलिस के साथ सांठगांठ से जिस तरीके से जगदलपुर लीगल ऐड ग्रुप (जगलग) को स्थानीय आदिवासियों की कानूनी मदद करने से रोका जा रहा है, उस पर पीपल्स यूनियन फॉर डैमोक्रेटिक राइट्स गहरी चिंता व्यक्त करता है. तकनीकी अड़चन को आधार बनाकर 3 अक्टूबर को बार एसोसिएशन ने जगलग के खिलाफ फतवा जारी कर दिया. बार एसोसिएशन का कहना है कि चूंकि जगलग के वकील छत्तीसगढ़ में पंजीकृत नहीं हैं, इसलिए उन्हें स्थानीय आदिवासियों के मामले कोर्ट में उठाने का भी हक नहीं है. दांतेवाड़ा के डिस्ट्रिक्ट बार एसोसिएशन ने भी अपनी जनरल बॉडी मीटिंग में इसी तर्ज पर प्रस्ताव पारित करने की कोशिश की, जिससे “बाहरी” वकीलों को स्थानीय अदालतों में वकालत करने से रोका जा सके. जहाँ एक तरफ यह सही है कि छत्तीसगढ़ उच्च न्यायलय के नियम 262 के अनुसार, जो वकील बार कौंसिल के साथ पंजीकृत नहीं हैं उन्हें अदालत में जिरह करने से रोका जा सकता है, वहीँ दूसरी तरफ यह भी याद रखा जाना चाहिए कि देश की किसी बार एसोसिएशन को एडवोकेट्स एक्ट की धारा 30 के मुताबिक यह अधिकार नहीं है कि वह किसी भी वकील को देश की किसी भी अदालत में वकालत करने से रोक सके. सबसे जरूरी बात यहाँ यह है कि बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया के पास ही किसी वकील का लाइसेंस रद्द करने का अधिकार है, वह भी कानूनी प्रक्रिया के बाद.
जिस सुनियोजित और संगठित तरीके से बस्तर के वकीलों का समूह जगलग को रोकना चाह रहा है वह एक व्यापक अभियान का हिस्सा है, जिसकी शुरुआत कई महीने पहले पुलिस द्वारा की गयी थी. अप्रैल 2015 में बस्तर के पुलिस अधीक्षक ने उन “कुछ गैर सरकारी संगठनों” को धमकी दी थी जो आदिवासियों की मदद करने की आड़ लेकर नक्सालियों की सहायता कर रहे हैं. यहाँ यह बता देना जरूरी है कि जगलग ने मोडेमा गाँव में हुई पुलिस फायरिंग के बाद पीड़ितों की तरफ से हस्तक्षेप किया था और पुलिस द्वारा किये गए उल्लंघनों को उजागर करने में उनकी मदद की थी.
हाल के कुछ महीनों में जगलग के खिलाफ अभियान में तब अचानक से तेजी आ गई जब पुलिस ने जानबूझकर एक बेनामी शिकायत की बिनाह पर जगलग के साथ जुड़े वकीलों की योग्यता की जांच शुरू कर दी. ऐसा उसने एक गुमनाम “आम नागरिक” की शिकायत पत्र के आधार पर किया, जो जगदलपुर के एस.पी. और बस्तर के पुलिस अधीक्षक को भेजा गया था. जगलग के वकीलों द्वारा अपने प्रमाणपत्र और दिल्ली बार एसोसिएशन से छत्तीसगढ़ बार एसोसिएशन में तबादले की अर्जी दिखाए जाने के बावजूद भी उन्हें लगातार तंग किया जाना जारी है. परेशान किये जाने का यह सिलसिला तब साफ़-साफ़ दिखाई देना शुरु किया जब जगलग के वकीलों द्वारा दाखिल एक जमानत की अर्जी को योग्यता के आधार पर अदालत द्वारा खारिज कर दिया गया. यह साफ़ है कि हाल ही में बार एसोसिएशन द्वारा पारित प्रस्तावों का मकसद स्थानीय वकीलों को जगलग से जुड़ने से रोकना है.
इस तरह के सुनियोजित तरीके से जगलग के वकीलों को परेशान किये जाने के महत्व को बस्तर में लगातार तीव्र होते सशस्त्र संघर्ष और आदिवासियों द्वारा भोगे जा रहे यथार्थ के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. हालांकि क़ानून में “नक्सल अपराध” जैसा कुछ नहीं है, लेकिन बस्तर में परभक्षक विकास नीति के खिलाफ हर तरह के प्रतिरोध और विरोध की आवाज़ को कुचलने के लिए “नक्सल अपराध” का नाम दे दिया जाता है. हर आदिवासी आरोपी को प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से कथित रूप से जोड़कर उसके खिलाफ ऐसे-ऐसे अपराधिक मामले दर्ज़ किये जाते हैं, जो उसे जीवन भर अदालतों के चक्कर लगाने या जेल में ठूंसे जाने के लिए काफी होते हैं. पुलिस द्वारा फंसाए गए ऐसे परिवारों की व्यथा को, जो कथित रूप से नक्सली संगठन के सदस्य/ समर्थक या हमदर्द थे, 2014 में प्रोफेसर वर्जिनियस खाखा की अध्यक्षता में सरकार द्वारा गठित एक उच्च-स्तरीय समिति ने भी माना था.
पी.यू.डी.आर. समझता है कि इस परेशान करने की मुहिम के पीछे असली मकसद यह है कि जगलग के वकीलों को आदिवासियों की कानूनी मदद करने से रोका जा सके, क्योंकि इस तरह की मदद से आरोपपत्रों में गढ़ी गईं मनगड़ंत कहानियों का पर्दाफाश होने का खतरा पैदा होता है. हमारा यह भी मानना है कि जगलग के इन प्रयासों से ऑपरेशन ग्रीन हंट के अंतर्गत की गईं गिरफ्तारियों और आत्मसमर्पण के आंकड़ों की सच्चाई भी सामने आती है, जिन्हें अक्सर इस ऑपरेशन की सफलता के रूप में बार-बार पेश किया जाता है. जब शासकीय बहस “हम” बनाम “वे” के दायरे में जकड़ी हो तो हर सरकारी कहानी पर सवालिया निशान लगाने वाला खतरनाक और देशद्रोही बागी करार दिया जाता है. हाल ही में पत्रकार संतोष यादव और सोमारू नाग को जिस तरह से अगुआ कर उन्हें यंत्रणा दी गयी और जिस तरह से उनके ऊपर भारतीय दंड संहिता और यहाँ तक कि छत्तीसगढ़ स्पेशल पावर्स एक्ट के कई प्रावधानों के अंतर्गत आरोप लगाए गए, वे हमारी इस शंका को और भी पुख्ता करते हैं कि बस्तर में हर विरोध की आवाज़ को दबाने की प्रशासन द्वारा कुत्सित कोशिशें की जा रही हैं.
संतोष यादव दरभा से दैनिक नई दुनिया अख़बार के स्थानीय रिपोर्टर हैं. 29 सितम्बर 2015 को दरभा पुलिस ने उन्हें यह कह कर उठा लिया कि बस्तर के पुलिस अधीक्षक उनसे मिलना चाहते हैं. यादव ने अपने लेखों के ज़रिये बस्तर पुलिस द्वारा प्रायोजित माओवादियों के कई फ़र्ज़ी आत्मसमर्पण के नाटकों का पर्दाफाश किया है. वे लगातार पुलिस के मुखबिर बनने से साफ़ इनकार करते रहे हैं. नतीजतन उन्हें पहले धमकाया गया और फिर परेशान किया जाने लगा. कुछ मीडिया रिपोर्टों के अनुसार उन्हें 2013 के झिरम घाटी के माओवादी हमले का आरोपी बनाकर “गिरफ्तार” किया गया है. सोमारू नाग राजस्थान पत्रिका के साथ स्ट्रिंगर और न्यूज़ एजेंट थे. ख़बरों के मुताबिक़ उन्हें 16 जुलाई 2015 को दर्भा से उठाया गया, लेकिन उनकी गिरफ्तारी 19 जुलाई को परपा थाने से दिखाई गई. उन पर आरोप लगाया गया कि वे 26 जून को पुलिस की गतिविधियों पर उस समय नज़र रख रहे थे, जब छोटे कदमा में एक समूह क्रशर में आग लगा रहा था. नाग पर भारतीय दण्ड संहिता और छत्तीसगढ़ स्पेशल पावर्स एक्ट के अलावा अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट और आर्म्स एक्ट के प्रावधान भी लगाए गए हैं.
ये तीनों घटनाएं – संतोष यादव और सोमारू नाग की गिरफ़्तारी और जगलग के खिलाफ कानूनी आदेश – हमें बस्तर के नाज़ुक हालातों की याद दिलाती हैं, जहाँ आदिवासियों को कानूनी प्रतिनिधित्व से वंचित किया जा रहा है और पत्रकारों को कोई न कोई तिकड़म लगाकर लोगों को जमीनी हकीकत से अवगत कराने से रोका जा रहा है.
पी.यू.डी.आर. बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया से अपील करता है कि वह जगलग के इन जुझारू वकीलों के अधिकारों की रक्षा करे. हमारी मीडियाकर्मियों और उनकी यूनियनो से भी गुज़ारिश है कि वे बस्तर में मीडिया के ऊपर होने वाले हमले का पुरजोर विरोध करें. जगलग को चुप कराने तथा संतोष यादव और सोमारू नाग जैसे साहसी पत्रकारों के खिलाफ अपराधिक कार्यवाही, बस्तर पुलिस के द्वारा आदिवासियों के खिलाफ दहशत का माहौल फैलाने की साजिश की तरफ इशारा करते हैं. आदिवासियों को फर्जी मामलों में फंसाकर महंगी कानूनी लड़ाई लड़ने की तरफ धकेला जा रहा है, यहाँ तक कि उन्हें जबरन माओवादी घोषित कर बड़े पुलिस अधिकारियों (अधिकतर पुलिस अधीक्षक) के सामने उनका फर्जी आत्मसमर्पण करवाया जा रहा है. इस सब की मंशा साफ़ है. वे चाहते हैं कि इस परभक्षी विकास नीति के खिलाफ कोई आवाज़ ना निकाले, कोई पत्रकार इन नीतियों, जो आदिवासियों को उनकी ज़मीन से बेदखल कर रही हैं, उनसे उनके जीने के सब सामान छीन रहीं हैं, के बारे में ना लिखे. और कोई उनका कानूनी खैरख्वाह ना हो.
शर्मिला पुरकायस्थ और मेघा बहल
सचिव, पीयूडीआर