1992 में बिहार के हुए बारा हत्याकांड के मामले, जिसमें 35 भूमिहार जाति के लोगों की हत्या हुई थी, के सज़ायाफ्ता नन्हे लाल मोची, वीर कुअर पासवान, कृष्णा मोची (तीनों दलित) और धमेन्द्र सिंह की फांसी की सज़ा को राष्ट्रपति द्वारा उम्रकैद में बदले जाने का पीयूडीआर स्वागत करता है। परन्तु इस मामले में फांसी को उम्रकैद में बदला जाना अधूरा न्याय है क्योंकि इससे संबंधित शर्तों के बारे में किसी तरह की स्पष्टता के अभाव में ये चार कैदी अनिश्चित समय के लिए जेल में सड़ते रहेंगे। इन चार कैदियों को 2001 में टाडा डेज़िगनेटिड कोर्ट ने एक अत्यधिक पक्षपाती मुकदमे द्वारा फांसी की सज़ा सुनाई थी और 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस सज़ा को कायम रखा था। इनकी दया याचिका 2003 में दर्ज़ हुईं थी जो कि अगले 10 साल तक संबंधित अधिकारियों तक नहीं पहुँचीं। इस असामान्य देरी का परिणाम यह हुआ कि ये लोग दो दशकों से ज़्यादा से जेल में बंद हैं और इसमें से 15 साल मौत के डर के साये में गुज़ार चुके हैं। दया याचना की मांग पर मौत की सज़ा को उम्र कैद में बदले जाने के साथ इन्हें जेल की कठोर ज़िन्दगी की अंतहीन यातना की ओर धकेल दिया गया है । इसी मामले में टाडा कोर्ट ने 2009 में व्यास कहर और बुगुल मोची को भी फांसी की सज़ा सुनाई थी जिसे सर्वोच्च न्यायलय ने 2013 में उम्रकैद में तब्दील कर दिया था। परन्तु उम्रकैद की व्याख्या ‘बाकी की स्वाभाविक ज़िन्दगी’ के रूप में की गई थी यानी कि वे तब तक जेल में सड़ते रहेंगे जब तक कि मौत उन्हें रिहाई न दे दे।
पीयूडीआर का मनना है कि ऐसी सज़ा जिसमें स्वाभाविक मृत्यु तक किसी व्यक्ति को जेल में रखा जाना सुनिश्चित होता है, क्रूर और निरर्थक है। क्षमा और छोड़े जाने की कोई संभावना न हो तो पूरी ज़िन्दगी जेल में रखे जाने की स्थिति, सज़ा के एक महत्वपूर्ण उद्देश्य यानी सुधार की संभावना को खत्म कर देती है। इस स्थिति में सज़ा यह सुनिश्चित कर देती है कि न्याय व्यवस्था सुधारत्मक मंशा से रिक्त हो जाए, कैदी को पुर्नवास का कोई मौका नहीं मिले और इसका उद्देश्य केवल ‘बदला’ बन कर रह जाता है। फांसी की सज़ा को उम्रकैद में बदला जाना कैदी को जीवन का मौलिक अधिकार देता है पर इस मौलिक अधिकार में गरिमा के साथ जीवन जी पाने का अधिकार भी निहित है। मृत्यु तक जेल में बंद रखने का अर्थ है ठसाठस भरे जेलों में, अमानवीय और यातनामय हालातों में रखा जाना, जो कि गरिमा के साथ ज़िन्दगी बिताने की संभावना को छू भी नहीं सकता। मृत्यु तक जेल में सड़ते रहना मानसिक रूप से उतना ही क्रूर है जितना कि दया याचिका पर फैसले के लिए इंतज़ार करना क्योंकि यह असल में एक अस्वाभाविक मौत के इंतज़ार को स्वाभाविक मौत के इंतज़ार में बदल देता है। यह कैदी को उस स्थिति में ढकेल देता है जिसमें वह जितना ज़्यादा जीता है उसकी सज़ा उतनी ही लंबी होती जाती है।
पीयूडीआर इस ओर भी ध्यानाकर्षित करना चाहता है कि बारा मामले के कैदी समाज के बेहद निचले वर्ग से हैं। और जबकि भारत की न्याय व्यवस्था जाति, धर्म, वर्ग, लिंग संबंधित गैरबराबरियों से युक्त है, बारा मामले में दोषी ठहराया जाना और सज़ा, एक हद दर्ज़ के पक्षपाती और पूर्वग्रही मुकदमे का नतीजा थे। कोर्ट में दाखिल सबूत अविश्वसनीय थे। उदाहरण के लिए, इस मामले की एफआईआर एक चश्मदीद गवाह के बयान के आधार पर दर्ज़ की गई थी, जिसने हत्याकांड में तथाकथित रूप से शामिल 35 लोगों और कई अन्य के नाम लिए थे। पर इस चश्मदीद गवाह को कभी कोर्ट में पेश ही नहीं किया गया। यह तथ्य कि तहकीकात, सबूत और मुकदमा सभी दोषयुक्त थे, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में भी उभर कर आता है। टाडा कोर्ट द्वारा 2001 में दिए गए फैसले की अपील पर जब सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया तो यह एक बंटा हुआ फैसला था। दो न्यायाधीशों के बहुमत फैसले ने फांसी की सज़ा को कायम रखा था, पर तीसरे न्यायाधीश के असहमति के फैसले में धर्मेन्द्र सिंह को बरी किया गया था और बाकी तीन को उम्र कैद की सज़ा दी गई थी।
यहाँ यह याद रखा जाना भी ज़रूरी है कि बिहार के हत्याकांडों में आए फैसले दलित और अन्य पिछड़े वर्गों के खिलाफ जाते रहे हैं। उन मामलों में जिनमें अपराधी तथाकथित ऊँची जातियों से थे और पीड़ित तथाकथित निचली जातियों से, आरोपी लगभग हमेशा साफ बच निकले। 1980 और 1990 के दशकों में एक तथाकथित ऊँची जाति यानी भूमिहार जंमींदारों की रणवीर सेना ने मध्य बिहार में 23 हत्याकांडों में 256 दलितों और गरीबों की हत्याएं कीं। परन्तु इनमें से हत्याकांडों से संबंधित मामलों में, जैसे कि बठानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, नागरी बाज़ार और मिंयापुर में रणवीर सेना के 125 सदस्यों के खिलाफ आईपीसी की धाराओं के तहत केस चले, (यानी टाडा नहीं लगाया गया) और इनमें से 56 को पहले निचली अदालत द्वारा और 68 को पटना उच्च न्यायालय द्वारा सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। सिर्फ एक व्यक्ति को नागरी के मामले में आजीवन कारावास की सज़ा दी गई। इसी तरह से रणवीर सेना किए गए अन्य हत्याकांडों जैसे नारायणपुर और शंकरबीघा के 1999 के मामलों में भी सभी अभियुक्त बरी हो गए। यानी कि रणवीर सेना द्वारा किए गए इतने अधिक हत्याकांडों में कोई सज़ा हुई ही नहीं है। और दूसरी ओर बारा के अभियुक्तों पर ठीक उसी तरह के हत्याकांड के लिए ‘आतंकवादी कानून’ टाडा के तहत मुकदमा चला और एक त्रुटिपूर्ण मुकदमे द्वारा सज़ा हुई और वे लंबी लंबी सज़ा काट चुके हैं।
2015 में पीयूडीआर के कार्यकर्ता फांसी की सज़ा पाए चारों व्यक्तियों, जिनकी सज़ा को अब उम्रकैद में बदल दिया गया है, से भागलपुर जेल में मिले थे। तब इन लोगों ने अपनी कहानियाँ सुनाई थीं और कठिन परीक्षा के बारे में बताते हुए कहा था कि बाकी कि ज़िन्दगी जेल में बिताने की जगह वे मर कर इन कष्टों से निजात पाना चाहेंगे। इस तरह फांसी का उम्रकैद में बदला जाना मौत को स्थगित ज़रूर कर देगा, पर न्याय तभी होगा अगर बारा मामले के इन छः कैदियों को तुरंत रिहा कर दिया जाए। पीयूडीआर का मानना है कि इनको रिहा किये जाने से न केवल उनकी जिंदगियां और आज़ादी बहाल हो पाएगी बल्कि इससे संविधान के बराबरी और सभी को न्याय के लक्ष्य को हासिल करने में भारत की न्याय व्यवस्था की भी जीत होगी।
हम मांग करते हैं कि नन्हे लाल मोची, वीर कुअर पासवान, कृष्णा मोची, धर्मेन्द्र सिंह, व्यास कहर और बुगुल मोची को तुरंत रिहा किया जाए।
अनुष्का सिंह, सीजो जॉय
सचिव, पीयूडीआर