गुड़गाँव सत्र अदालत द्वारा स्टेट ऑफ़ हरियाणा बनाम जियालाल एवं अन्य के मुकद्दमे में 10 मार्च 2017 को दोषी ठहराये गए 31 आरोपियों को आज सजा सुनाई गई । इनमें से 13 यूनियन लीडरों को आजीवन कारावास, 4 को पांच साल कैद, और बाकियों को जेल में बिता चुके समय की सज़ा दी गई | पीपल्स यूनियन फॉर डैमोक्रेटिक राइट्स न केवल इस कठोर सजा की बल्कि 31 मजदूरों को दोषी ठहराने की भी कड़ी निंदा करता है । यह मुकद्दमा 18 जुलाई 2012 को मारूति के मानेसर प्लांट में हुई हिंसा एवं दफ्तर में आगजनी और इस दौरान दुर्भाग्यवश दम घुटने से एचआर मैनेजर की हुई मृत्यु के संदर्भ में दायर किया गया था |
इस संदर्भ में यह याद रखना चाहिए कि मारूति के मानेसर प्लांट में मजदूरों को अपनी यूनियन बनाने के संवैधानिक अधिकार के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ा था | 2012 में अपने निर्माण के बाद से ही मारूति सुजुकि वरकर्स यूनियन (रजि. न. 1923) कंपनी प्रबंधन के साथ मजदूरों की विभिन्न मांगें उठाती रही है, जिसमें ठेका मजदूरों की मांगें भी शामिल हैं । 18 जुलाई 2012 को एक सुपरवाइजर और एक दलित मजदूर के बीच हुए झगड़े के बाद इस मजदूर को निलंबित कर दिया गया था। यह घटना उस समय हुई जब यूनियन के सदस्यों एवं प्रबंधन के बीच मजदूरों के लम्बित मुद्दों पर बैठक चल रही थी। यूनियन ने इस मजदूर का गैरकानूनी निलंबन रद्द करने की मांग की। उस दिन कंपनी के अंदर काफी बड़ी संख्या में बाउंसर लगाए गए थे और साथ ही जिस समय मैनेजमेंट से बातचीत चल रही थी उसी समय बड़ी संख्या में पुलिस बल को कंपनी में बुला लिया गया था। मजदूर के निलंबन को वापस लेने के मुद्दे पर मैनेजमेंट के ढुलमुल रवैये और श्रम विभाग के उपस्थित अधिकारियों के श्रम विरोधी व्यवहार के कारण वहाँ अत्यधिक तनाव की स्थिति बन गई थी । इसके बाद वहाँ हुए हंगामे में प्रबंधन के कुछ लोगों और कुछ मजदूरों को चोटें आयीं | इसी बीच आग लग गई जिसमें दुर्भाग्यपूर्ण रूप से दम घुटने से एक एचआर मैनेजर की मृत्यु हो गई।
घटना के पहले ही दिन से पुलिस द्वारा मैनेजमेंट के साथ सांठ-गाँठ करके मनमाने तरीके से तहकीकात की गई | इस बात की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि पुलिस ने मैनेजमेंट द्वारा दी गई नामों की सूची के आधार पर 148 मजदूरों को गिरफ्तार किया । इसमें मैनेजमेंट द्वारा विशेष तौर से यूनियन के पदाधिकारियों एवं सक्रिय सदस्यों को निशाना बनाया गया । जाँच में बहुत सारी चीजों को नज़रअंदाज़ किया गया जैसे कि मैनेजमेंट के बयानों की विसंगतियां, कंपनी में बाउंसरों का मौजूद होना और उस दिन मजदूरों का घायल होना । इसके बाद पुलिस ने पूरी तरह गैर-कानूनी रूप से कार्यवाही की, मसलन हिरासत में लिए जाने के सभी सुरक्षा नियमों का हनन, गिरफ्तार मजदूरों को थर्ड डिग्री यातनाएं देना, उनके घरवालों को परेशान करना तथा बार-बार उन मजदूरों पर हमले करना जो इन गिरफ्तारियों का विरोध कर रहे थे। पुलिस का इतनी तत्परता एवं अति उत्साह दिखाना साफ़ तरह से यह दर्शाता है कि पुलिस मैनेजमेंट के इशारों पर चल रही थी।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की तहकीकात में पहले से ही यह धारणा बना ली गई थी कि हिंसा मजदूरों ने ही की थी और इस संभावना को पूरी तरह से नकार दिया गया कि कंपनी के अधिकारी, मैनेजमेंट एवं मौजूद बाउंसर भी इसके लिए जिम्मेदार हो सकते हैं।
इस मुकद्दमे की सुनवाई के दौरान 139 आरोपियों को 3 से 4 साल जेल में बिताने के बाद उच्च न्यायालय द्वारा जमानत मिली और 9 आरोपी तो सारा समय जेल में ही रहे । यह तथ्य कि इनमें से 117 को न्यायालय द्वारा बरी कर दिया गया गया है यह दर्शाता है कि इन्हें बिना किसी आधार के इतने साल कैद में रखा गया । बारीकी से मुकदमे का अध्ययन 31 मजदूरों को दोषी ठहराए जाने पर गंभीर संदेह पैदा करता है । इसमें से 13 आरोपियों को हत्या का दोषी माना गया है | गौरतलब है की ये सभी यूनियन के पदाधिकारी और सक्रिय सदस्य थे ।
यह दोषी ठहराया जाना न सिर्फ राजनैतिक कारणों से प्रेरित है साथ ही एक बेहद त्रुटिपूर्ण मुक़दमे का नतीजा है | जैसे कि अभियेाजन पक्ष के गवाहों द्वारा सभी आरेापियों के नाम वर्णानुक्रम (एल्फाबेटिकल आर्डर) में देना, गवाहों द्वारा आरोपियों की पहचान न कर पाना और हिंसा में उनकी विशिष्ट भूमिका न बता पाना, एफआईआर से सुनवाई के बीच हमले के लिए प्रयोग किये गए हथियारों का लाठी, लोहे के रोड और बिरजा से कार के दरवाजे की बीम, शोकर रोड में बदल जाना, घटना के कई दिनों के बाद आरेापियों के घर से हथियारों की बरामदगी इत्यादि । अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि आग कैसे और किसने लगाई । मारे गए मेनेजर पर किसी भी जानलेवा हमले के पुख्ता सबूत का अभाव, वहां मौजूद अन्य प्रबंधन स्टाफ को कोई चोट न लगना इत्यादि यह स्पष्ट करने के लिए काफी हैं कि न्यायालय में यह साबित नहीं हो सका कि ये मजदूर हत्या और आग लगाने एवं संपत्ति को नुकसान पहुँचाने में शामिल थे।
इस बात को ध्यान में रखते हुए की अदालत के समक्ष प्रस्तुत किए गए सबूतों में बहुत सारी कमियाँ हैं, हम यह मानते हैं कि मजदूरों को अपराधी घोषित करना पूरी तरह एक पक्षपातपूर्ण निर्णय है | यह एक अन्यायपूर्ण आदलती कार्यवाही पर आधारित है जो कि राजसत्ता की संस्थाओं और कंपनी की मिलीभगत का परिणाम है, जिसमें पुलिस, प्रशासन, अदालत सभी मारूति मैनेजमेंट के साथ मिले हुए हैं। ये सभी एक साथ मजदूर अधिकारों के हनन, उनके साथ हुए अन्याय एवं उन्हें मिली शारीरिक और मानसिक यातनाओं के दोषी हैं । यह मामला राजसत्ता और पूंजीपति वर्ग की मिलीभगत का स्पष्ट उदाहरण है। उच्च न्यायालय के एक फैसले में मारूति मजदूरों की जमानत की याचिका को खारिज करते हुए यह कहा गया था कि इन्हें जमानत देने से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खराब परंपरा स्थापित होगी।
इस फैसले द्वारा औद्योगिक क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिकों को यह संदेश दिया गया है की वे अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष न करें। लगातार “मारुती जैसी स्थिति” की धमकियां देना, नियमित रूप से धारा 144 लगाना, मजदूरों को अपराधी घोषित करना गुडगांव-मोनसर-धारूहेड़ा और बावल औद्योगिक क्षेत्र में रोज़ की बात हो गई है । यह फैसला पूरे भारत के मजदूर वर्ग को यह संदेश देता है कि न्यायिक व्यवस्था पूंजीपति वर्ग के पक्ष में झुकी हुई है, जो श्रमिकों के अधिकारों को छीनने के लिए मैनेजमेंट को और शक्तिशाली बनाती है |
पीयूडीआर मारूति के श्रमिकों के इस संघर्ष में उनके साथ खड़ा है। इस बीच हरियाणा सरकार कम से कम इतना तो कर सकती है कि अदालत द्वारा बरी किये गए 117 मजदूरों को गैर-कानूनी रूप से कैद में रखने, जेल में व्यर्थ हुए उनके जीवन के बहुमूल्य वर्षों और जीवनयापन के नुकसान के लिए मुआवजा दे।
सीजो जॉय, अनुष्का सिंह
सचिव, पीयूडीआर