People’s Union for Democratic Rights

A civil liberties and democratic rights organisation based in Delhi, India

मानावधिकार कार्यकर्ता आनंद तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा को, देश भर में फैले कोरोना वायरस के संकट के बीच, एन.आई.ए. के समक्ष सरेंडर करवाया जाना, आधुनिक भारत के राजनैतिक इतिहास में ओछेपन का एक नया स्तर है |

पिछले दो वर्षों से देश भर में जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों को गिरफ़्तार करने के लिए राज्यसत्ता का मुख्य हथियार भीमा कोरेगाँव के नाम से चर्चित मामला रहा है। ये वही व्यक्ति हैं जो मध्य और पूर्वी भारत के वन क्षेत्रों में सरकार द्वारा चलाई जा रही घिनौनी जंग के दौरान हो रहे मानावधिकार उल्लंघनों के मामलों को लगातार उठाते आए हैं। भीमा कोरेगाँव मामले में आरोपित 11 व्यक्तियों को गिरफ़्तार करने के लिए सरकार ने एक राजनैतिक षड्यंत्र रचा है, जिसकी धुरी विधि विरुद्ध गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (यू.ए.पी.ए.) व इसमें दिए गए प्रतिबंध के प्रावधान हैं, जिनका सहारा लेकर इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों को प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) पार्टी से जोड़ने का प्रयास किया गया है। गौतम नवलखा और आनंद तेलतुम्बड़े समेत सभी 11 आरोपियों को ‘अर्बन नक्सल’ के रूप में पेश कर, उन पर ‘राजीव गांधी जैसी घटना के द्वारा मोदी-राज का अंत’ करने की साज़िश रचने का आरोप लगाया गया है। इनके ख़िलाफ़ लगाए गए बेहूदा आरोपों में पैसा और हथियार इकट्ठा करने से लेकर ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों के लिए सदस्य भर्ती करना भी शामिल है। ग़ौरतलब है कि इन आरोपों की शुरुआत इससे बिलकुल असम्बंधित एक घटना से हुई – 1 जनवरी 2018 को भीमा कोरेगाँव में विजय स्तम्भ की ओर जा रहे दलितों पर हुई हिंसा। इस हिंसा से सम्बंधित कई प्राथमिकियों में से एक को इस प्रकार चुना गया कि हिंसा के असली दोषी संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे आज खुलेआम घूम रहे हैं, जबकि उस घटना से असंबंधित व्यक्ति जिनका प्राथमिकी में नाम तक नहीं था, गिरफ़्तार हैं और पिछले 18-20 माह से बिना ज़मानत जेलों में बंद हैं।

इन 11 व्यक्तियों के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप, पहले दर्ज की गई किसी भी प्राथमिकी में वर्णित नहीं हैं, और इनके ख़िलाफ़ रचा पूरा मामला केवल डिजिटल दस्तावेज़ों पर आधारित है, जिन्हें कभी प्रेस वार्ताओं में प्रदर्शित किया गया, कभी मीडिया संस्थानों को गुप्त तौर पर लीक किया गया और कभी ‘बंद लिफ़ाफ़ों’ में अदालतों में प्रस्तुत किया गया। पेगासस सॉफ़्ट्वेयर, जिससे किसी के भी फ़ोन या कम्प्यूटर में कुछ भी लिखा या बदला जा सकता है, के अनाधिकृत इस्तेमाल के खुलासे की वजह से इन डिजिटल दस्तावेज़ों की सच्चाई पर गम्भीर सवाल लग चुके हैं। अगस्त 2018 में सर्वोच्च न्यायालय के एक जज ने भी, पीठ पर बाक़ी दो जजों से मतभेद व्यक्त करते हुए, इस मामले की तफ़तीश की निष्पक्षता पर सवाल उठाए थे और उनका मानना था कि एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एस.आइ.टी.) का गठन किया जाना चाहिए । जनवरी 2020 में इससे पहले की महाराष्ट्र सरकार एस.आई.टी. का गठन करने के अपने फ़ैसले पर अमल करती, केंद्रीय सरकार ने यह मामला एन.आई.ए. को ट्रांसफर कर दिया। इन सब से इस मामले के राजनैतिक चरित्र की दोबारा पुष्टि हो जाती है | एन.आइ.ए. की नई प्राथमिकी में गिरफ़्तार हुए 11 लोगों के अलावा “अन्य” अज्ञात भी आरोपियों की सूची में शामिल हैं, जिससे कि आगे और भी पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और वकीलों पर गिरफ़्तारी की तलवार लटकती रहे। 

पुलिस की सहायता करने में यू.ए.पी.ए. की भूमिका इस बात से स्पष्ट है कि इन 11 में से आज तक किसी को भी ज़मानत नहीं मिली है – सामान्य, अंतरिम, मेडिकल या अग्रिम। केवल एक बार इनमें से एक को अपने पिता के अंतिम संस्कार के लिए जाने की अनुमति दी गई थी, वह भी हिरासत में। ज़मानत न दिया जाना, इस क़ानून के तहत सज़ा का एक अहम् भाग है। यह क़ानून नज़रबंदी का एक यंत्र है, जो हिरासत में लिए गए लोगों की जिंदगियों के कई साल केवल पुलिस के आरोपों के आधार पर ही चुरा लेता है।

गिरफ़्तार किए गए सभी 11 व्यक्ति सामाजिक मुद्दों के प्रति सजग हैं। वे आदिवासियों पर राज्य और शक्तिशाली तबकों द्वारा ढाए जा रहे उत्पीड़न को उजागर करते आए हैं। इन्हीं प्रयासों की वजह से कई मामलों में सर्वोच्च न्यायालय और मानवाधिकार आयोग ने सरकार और सेना द्वारा की जा रही ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों का संज्ञान भी लिया। ये 11 व्यक्ति और इनसे सम्बंधित संगठन लम्बे समय से मज़दूरों, किसानों और आदिवासियों के अधिकारों, जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा, विकास, विस्थापन और पर्यावरण, और पुलिस फ़ाइअरिंग, मुठभेड़, और हिरासत में हत्याओं से जुड़े मुद्दे उठाते रहे हैं। इस तरह फ़ैक्ट-फ़ाइंडिंग करना, उत्पीड़ित व्यक्तियों से जुड़ाव रखना, उन्हें क़ानूनी मदद दिलाना इन सक्रिय व्यक्तियों और इनके संगठनों का काम रहा है। इन्हीं कार्यों से जुड़ाव को, आज गिरफ़्तारियों के ज़रिए, आपराधिक ठहराया जा रहा है।

क़ानूनी तौर पर भारतीय राज्य राजनैतिक बंदियों की श्रेणी का संज्ञान चाहे न ले, पर कोविड–19 महामारी के दौर में अपने कार्यकलापों से राज्य ने यह ज़ाहिर कर दिया है कि राजनैतिक विचारों के लिए जिन लोगों को बंदी बनाया जाता है, उनके लिए न्याय की एक अलग प्रणाली चलती है। कोविड-19 महामारी के ख़तरों को ध्यान में रखते हुए नवलखा और तेलतुम्बड़े ने आत्म-समर्पण करने के लिए कुछ और दिन की मोहलत माँगी थी, जिसको ठुकरा दिया गया। इसी प्रकार 80 वर्षीय वरवर राव एवं गठिए से ग्रस्त शोमा सेन की अंतरिम ज़मानत की अर्ज़ी का भी ख़ारिज किया जाना, इस दोहरी प्रणाली का खुलासा करता है।

पी.यू.डी.आर. में हमारे लिए, राज्य द्वारा संचालित यह प्रतिशोध और भी आकुल करने वाला है, क्योंकि इनमें से एक, गौतम नवलखा, जाने-माने पत्रकार और लेखक होने के साथ हमारे संगठन के एक अत्यंत सक्रिय और बहुत पुराने सदस्य हैं। भीमा कोरेगाँव षड्यंत्र प्रकरण में झूठे फँसाये गए सभी लोगों के साथ पी.यू.डी.आर. एकजुटता व्यक्त करता है और उनकी तुरंत रिहाई के साथ-साथ यु.ए.पी.ए. को रद्द करने की माँग करता है।

राधिका चितकरा और विकास कुमार
सचिव, पीयूडीआर
pudr@pudr.org

गौतम नवलखा का पत्र : १४ अप्रैल २०२०

Please follow and like us: